10 साल पुरानी बात है। कर्नाटक में 2013 विधानसभा चुनाव के नतीजे आ चुके थे। कांग्रेस ने 122 सीटें जीतकर बहुमत हासिल किया था। अब सवाल था- मुख्यमंत्री कौन बनेगा? एक तरफ 7 साल पहले कांग्रेस में शामिल हुए सिद्धारमैया थे, दूसरी तरफ कांग्रेस के पुराने कद्दावर मल्लिकार्जुन खड़गे।
विधायकों से सीक्रेट वोटिंग कराई गई। इसमें सिद्धारमैया का पलड़ा भारी पड़ा और वे मुख्यमंत्री बन गए। राजनीतिक पंडित कहते हैं कि सिद्धारमैय कांग्रेस विधायक दल के लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए पहले नेता हैं।
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10 साल बाद सिद्धारमैया फिर से डीके शिवकुमार पर भारी पड़े हैं। 2023 के कर्नाटक चुनावों में कांग्रेस को बहुमत मिला है। मुख्यमंत्री पद के दो दावेदार हैं- सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार।
आज हम सिद्धारमैया की पूरी कहानी जानेंगे, जिससे पता चलेगा कि उनके लिए ऐसी सिचुएशन नई क्यों नहीं है?

बचपन: सिद्धारमैया मवेशी चराते थे, पिता ने पढ़ाई के लिए राजी किया
सिद्धारमैया का जन्म 12 अगस्त 1948 को मैसूरु जिले के सिद्धारमहुंडी गांव के किसान परिवार सिद्धारमे गौड़ा के घर में हुआ। कुरुबा गौड़ा समुदाय में जन्मे सिद्धारमैया पांच भाई-बहनों में दूसरे नंबर पर हैं।
बचपन में पढ़ाई को लेकर सिद्धारमैया की कोई विशेष रुचि नहीं थी। वह मवेशियों की देखभाल और खेतों में पिता का हाथ बंटाते थे। बाद में पिता ने उन्हें पढ़ाई के लिए राजी किया और गांव के बुजुर्ग अप्पाजी उनके पहले शिक्षक बने।

सिद्धारमैया के एक रिश्तेदार बताते हैं कि ‘सिद्धारमा’ का अर्थ होता है एक ऐसा शख्स जो वह चाहता है, उसे पा लेता है। सिद्धारमैया बचपन से ही जिद्दी और समझौता न करने वाले शख्स रहे हैं। उनकी यही क्वालिटी राजनीति में उन्हें यहां तक लेकर आई है।
चाचा राम गौड़ा बताते हैं कि सिद्धारमैय के पिता की उस वक्त बहुत आमदनी नहीं थी। वो पढ़ाई के लिए एक-एक पैसा बचाते थे। सिद्धारमैय स्कूल जाने के बाद भी पहले की तरह ही पिता की मदद करते रहे।
वह सब्जियां और घर का राशन लेने के 10 किलोमीटर पैदल चलकर जाते थे। घर आने पर पिता उन्हें मसालेदार मुरमुरा देते, जो सिद्धारमैय को काफी पसंद था।
दूसरे चाचा सिद्देगौड़ा कहते हैं कि वे शुरू से जानते थे कि सिद्धारमैय कुछ अलग है। उनका भतीजा गांव का पहला ग्रेजुएट होने के साथ एक वकील भी है।
करियरः राजनीति में नहीं गए होते तो अच्छे वकील होते
उन्होंने लॉ की पढ़ाई पूरी करने के बाद मैसूरु में एक वकील चिक्काबोरैया के अधीन एक जूनियर के रूप में काम किया, जिसने युवा सिद्धारमैय को निखारा।
सिद्धारमैया के सीनियर रहे चिक्काबोरैया बताते हैं कि जब वह प्रैक्टिस करने लगे तो हर केस से जुड़े नोट्स लेते थे और रिसर्च करने के बाद ही जज के सामने बहस करते थे। वह कहते हैं कि सिद्धारमैया राजनीति में नहीं गए होते तो अच्छे वकील होते।

कानूनी पेशे में सिद्धारमैया के एक दूसरे सहयोगी थम्मन्ना गौड़ा ने कहा कि वह 1979 से पहले से उन्हें जानते हैं। उन्होंने बताया कि सिद्धारमैया ने न केवल कोर्ट में प्रैक्टिस की, बल्कि एक स्थानीय लॉ कॉलेज में पार्ट टाइम पढ़ाया भी।
उन्होंने बताया कि जब वे एक बार सिद्धारमैया के कमरे में गए तो उन्हें काफी आश्चर्य हुआ। कमरे में कपड़े से ज्यादा किताबें थीं। उन्होंने कहा कि जहां तक वह जानते हैं, सिद्धारमैया एक खाट पर सोते थे और अपने पूरे शैक्षिक जीवन में एक संयमित जीवन जिया।
राजनीतिः देवगौड़ा ने टिकट नहीं दिया, तो निर्दलीय जीत गए
वकालत करने के दौरान सिद्धारमैया को उनके एक सहयोगी वकील नंजुंदा स्वामी ने तालुका चुनाव लड़ने की सलाह दी। साल 1978 सिद्धारमैया ने चुनाव लड़ा और मैसूरु तालुका के लिए चुन लिए गए। सिद्धारमैया डॉ. राम मनोहर लोहिया के समाजवाद से प्रभावित थे।

उन्होंने वकालत छोड़कर राजनीति में प्रवेश किया। साल 1983 की बात है। सिद्धारमैया बेंगलुरु में जनता पार्टी के ऑफिस के बाहर कर्नाटक की चामुंडेश्वरी विधानसभा सीट से टिकट पाने की आस में बैठे थे। उस वक्त जनता पार्टी के अध्यक्ष एचडी देवगौड़ा थे। देवगौड़ा ने सिद्धारमैय को टिकट देने से साफ मना कर दिया।
सिद्धारमैया ने हार नहीं मानी और अपने राजनीतिक गुरु अब्दुल नाजीर साब की सलाह पर चामुंडेश्वरी से निर्दलीय चुनावी मैदान में उतर गए। इसी बीच लोक दल ने भी सिद्धारमैय को समर्थन दे दिया। बिना किसी राजनीतिक अनुभव के सिद्धारमैया जीत गए और रामकृष्ण हेगड़े के नेतृत्व वाली पहली गैर कांग्रेसी सरकार का समर्थन किया।
इसके बाद पुराने मैसूरु क्षेत्र में अपना जनाधार बढ़ाने के लिए देवगौड़ा ने भी उन्हें अपना लिया। 1985 में मध्यावधि चुनाव हुए। सिद्धारमैय लगातार दूसरी बाद चामुंडेश्वरी से विधायक बने।
हेगड़े ने राज्य की प्रशासनिक भाषा के रूप में कन्नड़ का इस्तेमाल करने के लिए बनाई गई कमेटी की अध्यक्षता सिद्धारमैय को सौंप दी। इससे सिद्धारमैय को राजनीतिक रूप से काफी फायदा मिला। साल 1985 के बाद हेगड़े ने सिद्धारमैया को अपने मंत्रालय में शामिल किया।
हेगड़े सरकार में सिद्धारमैया ने पशुपालन और परिवहन जैसे मंत्रालयों को संभाला। साल 1989 में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के सीनियर नेता एम राजशेखर मूर्ति से सिद्धारमैया चुनाव में हार गए। 1992 में वह जनता दल के महासचिव बने।
1994 के चुनाव में सिद्धारमैया चुनाव जीत गए और देवगौड़ा सरकार में वित्तमंत्री बने। साल 1996 में जब देवगौड़ा को प्रधानमंत्री बनाया गया तो सिद्धारमैया के CM बनने की संभावना जताई जाने लगी थी, लेकिन जनता दल के ही जेएच पटेल बाजी मार गए। हालांकि, सिद्धारमैया को डिप्टी CM बनाया गया।
1999 में जनता दल में टूट के बाद सिद्धारमैय ने देवगौड़ा का दामन थामा और JDS से जुड़ गए। इस दौरान देवगौड़ा ने उन्हें कर्नाटक में JDS का अध्यक्ष बना दिया। इसके बाद हुए विधानसभा चुनाव में सिद्धारमैय को एक बार फिर हार का सामना करना पड़ा।
बुरा दौरः पिछड़ा वर्ग में पॉपुलैरिटी बढ़ाने लगे, तो देवगौड़ा ने JDS से निकाला
2004 में कांग्रेस और JDS ने मिलकर कर्नाटक में सरकार बनाई। कांग्रेस के धरम सिंह मुख्यमंत्री बने। वहीं सिद्धारमैय को डिप्टी CM बनाया गया। सिद्धारमैय JDS के चेहरे के तौर पर तेजी से उभर रहे थे और खुद को पिछड़े वर्ग के नेता के रूप में स्थापित करने लगे।

इसी बीच अनुभवी राजनेता आरएल जालप्पा ने ‘अहिंदा’ बनाया जो अल्पसंख्यकों, ओबीसी और दलितों को एकजुट करता है। जालप्पा के साथ वह भी अहिंदा को आगे बढ़ाने में जुट गए। साथ ही एक के बाद एक तीन अहिंदा सम्मेलन बुलाया गया। इसने सिद्धारमैया का कद बढ़ा दिया।
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक एम के भास्कर राव कहते हैं कि अहिंदा के साथ ही सिद्धारमैया का कद वोक्कालिगा नेता देवगौड़ा और भाजपा के लिंगायत नेता बीएस येदियुरप्पा से बड़ा हो गया। इसी बीच देवगौड़ा के बेटे कुमारस्वामी भी कर्नाटक की राजनीति में तेजी से उभर रहे थे।
ऐसे समय में देवगौड़ा ने भांप लिया कि महत्वाकांक्षी सिद्धारमैय कुमारस्वामी के लिए खतरा बन सकते हैं। साल 2005 में सिद्धारमैया को पार्टी से बाहर कर दिया।
फाइट बैकः कांग्रेस विरोध की राजनीति करने वाले सिद्धारमैया 2006 में कांग्रेसी बन गए
JDS से निकाले जाने के बाद वह खुद को ठगा महसूस करने लगे। देवगौड़ा के इस फैसले से वह इतना निराश हुए कि राजनीति से संन्यास लेने और फिर से वकालत में लौटने के बारे में सोचने लगे।

कई लोगों ने उन्हें अपनी पार्टी बनाने का सुझाव दिया। इससे उन्होंने इनकार किया। उन्होंने कहा कि वह इतना धन-बल नहीं जुटा सकते। इसी बीच BJP और कांग्रेस उन्हें अपने पाले में शामिल करने की कोशिश में लगे रहे।
BJP की विचारधारा से असहमति जताते हुए सिद्धारमैय 2006 में अपने समर्थकों के साथ बेंगलुरु में सोनिया गांधी की मौजूदगी में कांग्रेस में शामिल हो गए। हालांकि, कुछ साल पहले तक सिद्धारमैय के कांग्रेस में शामिल होने की बात तक नहीं सोची जा सकती थी।
कांग्रेस में शामिल होने के बाद भी सिद्धारमैय ने मुख्यमंत्री बनने की अपनी महत्वाकांक्षा को कभी छिपाया नहीं। साथ ही बार-बार इस बात पर जोर दिया कि इस पद की लालसा करने में कुछ भी गलत नहीं है।
सिद्धारमैया ने अहिंदा के जरिए JDS की कुरुबा जाति के वोट को कांग्रेस के वोट में बदलने के साथ ही OBC और दलित वोटों को मजबूत किया। इससे कांग्रेस में सिद्धारमैया का कद काफी बढ़ गया। कर्नाटक में लिंगायत और वोक्कालिगा के बाद कुरुबा तीसरा सबसे बड़ा समुदाय है।
2013 में कर्नाटक विधानसभा चुनाव हुआ। कांग्रेस ने 122 सीटें जीतकर बहुमत हासिल किया। अब सवाल था मुख्यमंत्री कौन बनेगा? एक तरफ 7 साल पहले कांग्रेस में शामिल हुए सिद्धारमैया थे। वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस के बड़े दलित नेता मल्लिकार्जुन खड़गे। यहां सिद्धारमैया ने बाजी मारी और मुख्यमंत्री बन गए।
पॉपुलैरिटीः गरीबों की सबसे बुनियादी समस्या भोजन पर काम किया
मुख्यमंत्री बनने के बाद सिद्धारमैया अपनी सामाजिक-आर्थिक सुधार योजनाओं से कर्नाटक में काफी बदलाव लाए। उन्होंने गरीबों की सबसे बुनियादी समस्या भोजन पर काम किया।
सिद्धारमैया की अन्न-भाग्य योजना जिसमें 7 किलो चावल दिया जाता है, क्षीर-भाग्य जिसमें स्कूल जाने वाले सभी छात्रों के लिए 150 ग्राम दूध और इंदिरा कैंटीन ने उन्हें गरीबों का समर्थन दिलाया।
सिद्धारमैया ने भूख, शिक्षा, महिला और नवजात मृत्यु दर से निपटने वाली योजनाओं में सभी जातियों और समुदायों के गरीबों को कवर कर अहिंदा के आधार पर उन्हें बढ़ाया।
सभी बजट में महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए कुछ न कुछ किया। जैसे ग्रेजुएट होने तक मुफ्त शिक्षा, कॉलेज छात्रों के लिए लैपटॉप, पंचायतों में महिलाओं का होना अनिवार्य और गर्भवती होने के बाद से 16 महीने तक महिलाओं के लिए पौष्टिक भोजन देना।
विवाद: लिंगायत को अलग धर्म की मांग, टीपू सुल्तान की जयंती
सिद्धारमैया का विवादों से भी खूब नाता रहा है। वह सरकार के समय मैसूरु के शासक टीपू सुल्तान की जयंती धूमधाम से मनाई जाती थी। इसके अलावा उन्होंने PFI और SDPI के कई कार्यकर्ताओं को रिहा करने का भी आदेश दिया था।
2018 में चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस की सिद्धारमैय सरकार ने लिंगायत को अलग धर्म का दर्जा दिया और केंद्र सरकार को सिफारिश भेज दी। कांग्रेस लिंगायत समाज को एक बार फिर लुभाने की कोशिश में थी। इससे कांग्रेस की काफी किरकिरी हुई थी। 2018 में विधानसभा चुनाव हारने की एक बड़ी वजह यह भी मानी जाती है।

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