शिव की अवधारणा एवं स्थापित पूजा पद्धतियाँ

शिव की अवधारणा तो शिव के अलावा और कोई नहीं बता सकता। आपने सुनी होगी 6 अन्धो की कहानी जिन्होंने हाथी की व्याख्या की थी। जिसने हाथी की सूँड़ पकड़ी उसने कहा हाथी रस्से जैसा है। जिसने पाँव छुआ उसने कहा हाथी खम्भे जैसा है। एक ने पीठ छुई तो उसे लगा हाथी दिवार जैसा होता है। शिव की परिकल्पना तो हमारे अनुमानस में नहीं हो सकती परन्तु शिव का शिष्य होने के नाते अपनी अनुभूतियों के आधार पर अपने गुरु के बारे में हम कुछ तो लिख ही सकते है।

शिव की अवधारणा

शिव की अवधारणा भारतीय संस्कृति की महानतम उपलब्धि है जो सृष्टि के रहश्य पर पड़े हुए तमाम आवरणों को हटा कर हमें अपूर्व रहश्य से परिचित कराती है। शिव का अर्थ कल्याण होता है।

पता नहीं कब से शिव की आराधना होती आ रही है ,शायद सृष्टि की उत्पत्ति के साथ इसकी उत्पत्ति है पर हमारी लेखनी और सभ्यताओ की भी एक सीमा है। शायद इसलिए उस शिव को पूर्णता से जानना असंभव है।

शिव की अवधारणा

जहा तक सभ्यताओ की बात है तो पांच सहस्त्राब्दी ईशा पूर्व में पूर्ण विकसित सिंधु घाटी सभ्यता में शिव की आराधना प्रचलित थी। उत्खनन में प्राप्त शिव की मुर्तिया और शिवलिंग इसके साक्ष्य है। ऋग्वेद में एक देवता रूद्र की स्तुति की गयी है जो कालक्रम में पशुपति शिव तथा पौराणिक शिव से एकमेक हो गए है। अथर्ववेद में रूद्र को महादेव , शिव , शम्भू आदि उपाधियों से अलंकृत किया गया है। उपनिषदों में भी रूद्र को ईश , शिव , महेश्वर आदि उपाधियों से विभूषित किया गया है। वाल्मीकि रामायण , दक्षिणामूर्ति उपनिषद , रुद्रोपनिषद आदि में शिव को ‘परमगुरु’ भी कहा गया है। यजुर्वेद में शिव का भयावह एवं सौभ्य दोनों स्वरुप अन्य वेदो की अपेक्षा सर्वाधिक व्यापक है।

आइये, दृष्टिपाल करे भारतीय अध्यात्म पर। आप पायेंगे की परमात्मा को ‘शिव’ सम्बोधित किया गया है। सूक्ष्मातिसूक्ष्म परम चैतन्यात्मा को ही ईश्वर, परमेश्वर, शिव, परमात्मा आदि शब्दों से विभूषित किया गया है। यह जगत परमात्मा की इच्छा से सृष्ट है। माण्डूक्योपनिषद कहता है , ‘इच्छा मात्र प्रभो सृष्टि’। उस इच्छामयी की इच्छा से प्रारम्भ होती है लीलानंद की लीला। चलता है कालचक्र और सृष्टि के विकाश क्रम में सृष्ट होता है मनुष्य। परमात्मा की इच्छा, सृष्टि की नियामक शक्ति है। शिव चिरकाल से आदि गुरु है एवं गुरुपद पर अवस्थित है।

शिव की परिकल्पना तो ईश्वर, जगत गुरु, कपालेश्वर, पशुपति, मृत्युंजय, महेश्वर, अघोरेश्वर आदि अनेकानेक रूपों में की गयी है। वे सर्वमय तथा सर्वतन्त्ररूप है। उनके विभिन्न स्वरूपों की पूजा अर्चना का अविरल प्रवाह सर्वाधिक लोकप्रिय होता आया है। आपने सुना होगा ‘चंदा मामा सबके मामा और शिव घर-घर के बाबा हो गए।’ देवताओ के अधिपति, असुरो के आराध्य, योगियों के योगीश्वर, अघोरियों के अघोरेश्वर, तांत्रिको के महाकालेश्वर,कापालिकों के कपालेश्वर, गृहस्थों के उमा-महेश्वर एवं निहंगों के श्मशानी शिव के बहुआयामी व्यक्तित्व का जन मानस पर अक्षुण प्रभाव है। निराकार या साकार शिव की महिमा में प्रयुक्त सभी उपाधियों महेश्वर पद को इंगित करती है।

शिव के साकार व निराकार स्वरुप में कोई स्पष्ट विभेद नहीं किया गया है। शिव को निराकार ब्रह्म तथा जगत की उत्पत्ति, स्थिति एवं लय का आदिकारण माना गया है। साकार स्वरुप मे वो भष्ममंडित है, व्याघ्रचर्म उनका परिधान है, मुंडमाला एवं सर्प उनके आभूषण है। समुद्र मंथन से प्राप्त कालकूट विष देवताओ के लिए मृत्यु का कारक था किन्तु शिव ने सर्वहित में विषपान किया।

उनकी वेश-भूषा डरावनी है किन्तु वे संकर है। पहनने को वस्त्र नहीं फिर भी सम्पतियो के जनक है। उमापति है तो निःसंगी भी , महाकाल है तो मृत्युंजय भी। उनका जीवन अतिसामान्य है। वैभव और विलासिता से दूर शव साधुता की पहली तथा अंतिम पहचान है। शिव सुरो से पूजित है तो असुरो से भी। उनका यह स्वरुप दिखता है की न्यूनतम व्यवस्था में ही सुख-शांति है और सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी शिव हो सकता है।

शिव ईश्वर के रूप में विश्वमूर्ति और आनंदमूर्ति है

शिव ईश्वर के रूप में विश्वमूर्ति और आनंदमूर्ति है। भक्त-अभक्त, देवता-दानव, चिकित्सक-रोगी एवं जन्म-मृत्यु में अक्षुण रूप से विराजते हुए वे भावातीत सत्ता है। शिव की पूजा कर अनेक ने अतुल धन वैभव प्राप्त किया। देवाधिदेव महादेव के रूप में शिव अवढरदानी भी है।

महाभारत का अनुशाशन पर्व भी शिव की महिमा मंडान में पीछे नहीं – श्लोह है,

नास्ति शर्वसमो देवो

नास्ति शर्वसमा गति

नास्ति शर्वसमो दाने

नास्ति शर्वसमो रणेः

अर्थात शिव के सामान कोई देवता नहीं, शिव के सामान कोई गति नहि, शिव के सामान कोई दानी नहीं, शिव के सामान कोई योद्धा नहीं।

शिव तप और सच्ची भक्ति से लभ्य है। शिव की पूजा का प्रमाण सिंधु घाटी सभ्यता ने मिलता है। विद्वान् कहते है की पूर्व वैदिक काल में आर्येतर जातियां शिव पूजक थी। ईशा की दो सताब्दी पूर्व पातंजलि के महाभाष्य मे शिव भागवतो तथा शिव और स्कन्द की मूर्तियों का भी वर्णन है। कौटिल्य का “अर्थशास्त्र” एवं कल्हण की “राजतरंगिणी” में भी शिव की पूजा का उल्लेख मिलता है।

शिव की अवधारणा

पांचवी सदी ईशा पूर्व से निवर्तमान काल तक शिवोपासना विभिन्न रूपों में दैदीप्यमान हो उठी। दक्षिण भारत के संत ‘तिरुमुलर’ ने शैवागमों का संस्कृत से तमिल में अनुवाद भी किया। तिरुमुलर ने यहाँ तक कहा की शिव की असंख्य देवो ने पूजा की किन्तु उनकी पूजा करने से देवताओ को क्या मिलता हैं? इससे बेहतर तो यह होगा की आप पवित्र गुरु की पूजा करे। तिरुमुलर पुनः कहते है की गुरु शिव के अतिरिक्त और कुछ नहीं, ऐसा नंदीश्वर ने कहा। गुरु स्वयं शिव है उसका लोग अनुभव नहीं करते। सातवीं सताब्दी के वाणभट्ट की कीर्ति “हर्षचरित” तथा “कादम्बरी” आठवीं सताब्दी के कवि भवभूति की रचना ‘मालतीमाधव’ तथा नौवीं सताब्दी में आनंदगिरि के ‘शंकरविजय ‘ में शिव की पूजा के विभिन्न प्रकरणों का उल्लेख मिलता है। ‘श्वेताश्वतर’ उपनिषद समय की दृष्टि से उपनिषद काल के मध्य में पड़ती है। यहाँ उन्हें परब्रह्म, ईश , महेश्वर, शिव और ईशान कहा गया है। श्वेताश्वतर उपनिषद में रूद्र की स्तुति की गयी है और प्रार्थना-पथ को प्रतिष्ठित किया गया है। सांख्य विचारधारा का उल्लेख भी इसी उपनिषद में मिलता है। सांख्य पद्धति में विश्व की सृजन शक्ति के रूप में प्रकृति का उल्लेख किया गया है। सांख्य सिद्धांत के भी आराध्य देव् स्वयं शिव ही है। ऐसा प्रतीत होता है उपनिषदों के दार्शनिक सिद्धांतो के विकास के साथ भक्तिवाद की परंपरा का भी विकास होना सुरु हो गया था।

शिव की अवधारणा

भक्तिवाद का उपनिषदों की विचारधारा से गहरा सम्बन्ध था

कहा जाए तो भक्तिवाद का उपनिषदों की विचारधारा से गहरा सम्बन्ध था क्योकि इसके मूल में दो तत्व थे – एक परमेश्वर मे विस्वास और दूसरा इस परमेश्वर की प्रार्थना और स्तुतियों द्वारा उपासना। लोगो ने बहुदेवतावाद की पुरानी परंपरा को अस्वीकार कर एक परब्रह्म की कल्पना कर के धर्म में एकेश्वरवाद की स्थापना की। इस प्रकार उपनिषद काल में प्राचीन ब्राह्मण-कर्मकांड से अलग हट कर एक नयी प्रकार की पूजा पद्धति का प्रचार हुआ जिसका सार था एकेश्वरवाद का ध्यान और उसमे अनंत भक्ति।

इस पद्धति में उपासना के साधन बने प्रार्थना और भजन जो संहिताओं के सूक्तो से लिए गए। यह भक्तिवाद शिव की उपासना को लेकर आगे बढ़ा। यहाँ मनुष्य और पशुओ के रक्षा के लिए रूद्र से प्रार्थना की जाती थी। गृह्यसूत्रों में शिवोपासना का विस्तृत उल्लेख है। रूद्र की पूजा से क्षेत्र और समृद्धि प्राप्त होती है इसी विस्वास एवं प्रयोजन के साथ ‘शुलगव’ यज्ञ का विधान किया गया। वसंत या हेमंत ऋतू में शुक्ल पक्ष में यह यज्ञ किया जाता था जिसमे ‘शतरुद्रिय’ के पहले मन्त्र से प्रारम्भ होने वाले एक एक अनुवाक का पाठ किया जाता था।

गृह्यसूत्रों से उपलब्ध जानकारी में सबसे महत्वपूर्ण यह है जो रूद्र की पूजा के एक नए आयाम पर प्रकाश डालती है – मूर्ति पूजा। यही पर रूद्र की मूर्ति का प्रतिष्ठापन और पूजन का स्पष्ट उल्लेख है। इस सूत्र में पहली बार शिवलिंग का भी उल्लेख किया गया है। मानवाकार मूर्तियों के साथ-साथ लिंग-मूर्तियों का भी वर्णन किया गया है। इससे यह भी सिद्ध होता है की ‘बौधायन गृह्यसूत्र’ तक रूद्र की पूजा लिंग रूप में भी होने लगी थी। लिंग को भगवान् शिव का एक प्रतिक माना जाता था, और उसकी उपासना फल-फूलो द्वारा की जाती थी।

शिव को महायोगी और योग विद्या का प्रमुख आचार्य भी कहा जाता रहा है। शिव की उपासना के सम्बन्ध में योगाभ्यास की एक विशेष विधि का भी विकाश हुआ जिसे ‘माहेश्वर योग’ कहा जाता था। इसका वर्णन सौर और वायु पुराण में भी है। ‘चित्तवृत्ति निरोधः योगः’ अर्थात इच्छाओ तथा कामनाओ का निरोध कर परमात्मा से युक्त होने की विद्या है – योग।

भारतवर्ष की प्राचीनतम पूजा की पद्धति भक्तिमार्ग ही है

भारतवर्ष की प्राचीनतम पूजा की पद्धति भक्तिमार्ग ही है। प्राचीनकाल की यही भक्ति बाद में आगम कहलाने लगी और आगम कालान्तर में तंत्र के नाम से जाना गया। तंत्र शब्द का शाब्दिक अर्थ है ‘तनना’ या ‘फैलना’। व्यक्ति अपने मन को शिव प्रेम की विद्या से शिव जैसा बना ले। यही तंत्र है जहां बैल और बाघ प्रेम से विराजते है। तंत्र साहित्य मूल रूप से शिव-पार्वती संवाद है जिसमे शिव गुरु है और भवानी शिष्या। तंत्र जीवन के अस्तित्ववाद से प्रारम्भ होता है। यह प्रवृति से प्रवृति के द्वारा निवृति की विद्या है। सीधे शब्दों में कहे तो प्रेम हमारा जन्मजात गुण है और तंत्र उस शिव से प्रेम के अलावा और कुछ भी नहीं। ध्यातव्य है की प्रेम में समर्पण सन्निहित है।

शिव के शिष्य मत्स्येन्द्र नाथ ने ‘कॉल मत’ का प्रतिपादन किया जो कूल-कुण्डलिनी से सम्बंधित है। ऐसा भी नहीं है की बीसवीं सदी उत्तरार्द्ध में कोई नयी विद्या पनपी है और पूजा के नए सिद्धांतो का ;प्रतिपादन किया गया।

शिव के विभिन्न स्वरूपों को अपनी पूर्णता में प्रसिद्धि प्राप्त तो हुई परन्तु सदाशिव, पंचानन, दक्षिणामूर्ति की महिमा से मंडित उनका ज्ञानदाता स्वरुप जन-सामान्य से प्रतिष्ठित नहीं हुआ। गुरु में पांच शक्तियों का समावेश माना गया है। इच्छा, ज्ञान, क्रिया, चित और आनंद। इन्ही पांच शक्तियों को मूल रूप से धारण करने के कारण शिव आदिगुरु और जगतगुरु है। इच्छा, ज्ञान, क्रिया परमात्मा की नियामक शक्ति है जिससे सृस्टि की उत्पत्ति, सृजन और संहार होता है। गुरु चिदानंद है, भाव सत्ता है। गुरु को शिव के मन के स्तर पर उतर कर शिव बनाने की प्रक्रिया प्रारम्भ करनी होती है। शिव आदिकाल से जगतगुरु की उपाधि से विभूषित है। सभी सद्गुरुओ ने उन्हें गुरु माना है। जगतगुरु होने के कारन कोई भी व्यक्ति उनका शिष्य हो सकता है। शिव की शिष्यता सांसारिक समृद्धि ही नहीं अपितु शिवत्व भी देती है। आवस्यकता है उनको अपना गुरु मानकर शिष्य भाव उत्पन्न किया जाए क्योकि गुरुपद का सृजन ही मात्र शिष्यों के लिए है। ये कथन है वरेण्य गुरुभ्राता श्री हरींद्रानंद जी के जिन्होंने इस आधुनिक युग में ‘शिव की शिष्यता एकमात्र विकल्प’ का उद्घोष किया।

इस विद्या के प्रवर्तक वरेण्य गुरुभ्राता साहब श्री हरींद्रानंद जी है। पारलौकिक और लौकिक ऊर्जा का अद्भुत सम्मिश्रण, उनके जीवन का इहलौकिक प्रयोजन और लक्ष्य है महागुरु महादेव के गुरु स्वरुप को विश्व के वितान पर स्थापित करना।

सम्पूर्ण मानवी सृष्टि के वितान पर शिव ज्ञान बिखेरने की आकांक्षा एवं अध्यात्म में आ गयी संक्रांति से प्रत्येक व्यक्ति को मुक्त कराने की अंतःप्रेरणा से वरेण्य गुरुभ्राता ने भारतीय अध्यात्म में पहली बार प्रेम की आधारशिला पर जाती, लिंग, धर्म, सम्प्रदाय की समस्त संक्रीणताओ और वर्जनाओं से मुक्त शिव गुरु से जान जान के जुड़ाव के निमित्त आवाम को सरल एवं सुगम तीन सूत्रों पर चलने का रास्ता दिखाया।

आखिर में वरेण्य गुरुभ्राता का मन सहसा कह उठा-

नास्ति शर्वसमो गुरुः

शिव के सामान कोई गुरु नहीं।

Credit : अभिनव आनंद

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