राघव अपने माँ-बाप का एकलौता बेटा था। राधव के पिता रामानुज एक महाविद्यालय में संस्कृत के व्याख्याता थे।
धार्मिक और संस्कारी परिवार था। समाज में काफी मान- सम्मान था। गाँव के एक सम्पन्न परिवार से सम्बन्ध रखते थे। उनके पिता जी भी गाँव के मुखिया थे।
राधव को वे इंजिनियर बनाना चाहते थे। राधव बचपन से ही अपने पिता के बताए कदमों पर चलने वाला था। उसकी तो जैसे अपनी कोई इच्छा ही नहीं होती थी। वैसे वह मेधावी छात्र था। शायद मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ा था। माँ- बाप के अतिरिक्त चिन्ता और देखभाल की वजह से ऐसा स्वभाव हो गया होगा।
राधव जब इंजिनियर बन गया तो उसकी नौकरी दूसरे शहर में लगी। वह दूसरी जगह जाना नहीं चाह रहा था।अतः रामानुज उसकी शादी कर बहू के साथ भेजने की गरज से लड़की की तलाश करने लगे। गहरी खोज- बिन के बाद स्नातक पास सिया से उसकी शादी ठीक हो गई।

धूम-धाम से शादी हुई और राधव अपनी पत्नी के साथ अपने कर्मक्षेत्र में रहने लगा।
शुरू- शुरू में सिया को अजीब लगता था। हर छोटी- बड़ी बातें माँ- पिता जी से पूछकर ही करता था। घर में कौन सामान आयेगा किस कम्पनी का आयेगा ये भी माता-पिता निर्णय करते करते थे। इस बात से सिया को घुटन होने लगी। उसने एक मनोवैज्ञानिक से सम्पर्क भी किया। उसकी ये समस्या बचपन की थी।
डॉक्टर का कहना था कि यह बीमारी एकाएक ठीक नहीं हो सकती है। मधुर व्यवहार से धीरे- धीरे परिवर्तित होगी। धैर्य के साथ सिया पति के साथ साकारात्मक व्यवहार करती रही। इसी बीच सिया को एक अलौकिक वरदान मिला। माँ बनना अलौकिक वरदान ही तो है। कुछ दिनों के बाद सासु माँ भी यहीं रहने लगी। सास- बहू दोनों सुखद कल्पना की दुनिया में खोई रहती थी। सासु माँ अपनी बहू का बहुत ख्याल रखती थी। आखिर वो वक्त आ ही गया। रामानुज भी कुछ दिनों की छुट्टी लेकर यहीं आ गये।
सिया के पेट में जुड़वा बच्चा था, अतः ऑपरेशन करना पड़ा।
ऑपरेशन सफल रहा और सिया ने स्वस्थ दो बच्चों को जन्म दिया। सिया को अभी चेतना नहीं आई थी। डाॅक्टर ने आकर बताया तो खुशी के साथ एक चिन्ता भी सताने लगी। एक बच्चा बेटी था और दूसरा—- अचानक सासु माँ के मुख से निकल गया-
“दूसरे बच्चे का हम क्या करेंगे? कैसे किसी को बतायेंगे? शर्म से सिर झुक जायेगा।”
इसपर रामानुज ने कहा-
” किसी को पता ही नहीं चलेगा। हम इसे इसकी जमात में दे देंगे।
कुछ दिनों के लिए बहू को मायके भेज देंगे।”
कुछ देर बाद सिया को जब होश आया तो सिया सभी के चेहरे पर हर्ष मिश्रित चिन्ता देखकर घबरा गयी।
“क्या हुआ माँ जी?
बच्चे कहाँ हैं?”
नर्स ने बच्चा लाकर दिखा दिया । सिर्फ बेटी है कहा।
सिया मन- ही- मन सोचने लगी- आखिर इतनी खामोशी क्यों है? सासु माँ तो बोल रही थी कि बेटा हो या बेटी हमें कोई फर्क नहीं पडेगा। फिर….
इसी उधेड़बुन में थी कि नर्स बच्चे को दूध पिलाने के लिए लेकर आई।
गोद में लेते ही वह सारा माजरा समझ गयी। उनलोगों के व्यवहार से सिया चिन्तित हो उठी।
एक हफ्ते बाद घर आते ही सास माँ ने अपना निर्णय सुना दिया।
“तुम अगले हफ्ते मायके चली जाना। तीन महीने बाद आना और रास्ते में ही मैं उसकी जमात की मालकिन को लेकर खड़ी रहूँगी, उसे इसको देकर बेटी को लेकर घर आयेंगे।”
सुनकर सिया सिहर उठी। तेज आवाज में बोली-
” माँ आपने ऐसा सोच कैसे लिया?ये मेरा बच्चा है। मेरे साथ रहेगा। दोनों की परवरिश एक साथ एक जैसी होगी। मरते दम तक मैं ऐसा नहीं कर सकती।”
वातावरण में अशांति फैल गयी। राघव भी अपने माता-पिता का साथ देते हुए सिया से झगड़ पड़ा। वैसे सिया को राघव से मदद की उम्मीद नहीं थी।
रामानुज ने भी स्पष्ट कह दिया था-
” घर में रहा तो वो मेरे लिए अभिशाप बन जायेगा। इस बच्चे को मेरे घर में कोई जगह नहीं है।”
अब सिया के सामने घर छोड़कर जाने के सिवा कोई विकल्प नहीं था। वह एक महीने के बच्चे को लेकर अपने मायके चली गयी।
सिया मायके तो आ गयी, लेकिन यह स्थायी समाधान तो नहीं है?
वह हमेशा मायके में बोझ बनकर तो नहीं रह सकती थी। सिया नौकरी ढूँढने की कोशिश करने लगी। और इधर माँ की सहायता से एक बुटीक खोली। आस- पास की लड़कियाँ सीखने भी आने लगी। सिया ने स्वयं इसकी ट्रेनिंग ले रखी थी। ससुराल वाले अपनी जीद्द पर अड़े रहे और सिया अपनी जीद्द पर। सिया का भाई भी सिया की बात से सहमत नहीं था। सिया अपने बच्चों की परवरिश के लिए संघर्षरत थी।
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सीता और गीता स्कूल जाने लगी और सिया एक प्राइमरी स्कूल में शिक्षक बन चुकी थी। भाई-भाभी का रवैया भी धीरे-धीरे नकारात्मक होता गया। सिया अब अलग रहने की बात सोचने लगी। दिन गुजरते गये। राघव ने कभी भी सिया से सम्पर्क करने की कोशिश नहीं की। सिया जानती थी कि राघव का अपना कोई अस्तित्व है ही नहीं।——–
सिया की जिन्दगी सीता और गीता तक सिमट कर रह गयी।
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अकेले दो बेटियों की परवरिश करना इतना आसान नहीं है, जब कि एक —–
खैर सिया की तपस्या सफल हुई और दोनों गोल्ड मेडलिस्ट हुईं। स्नातक करने के बाद प्रशासनिक परीक्षा की तैयारी करने लगी। कहते हैं न कि जो विश्वास और लगन के साथ मेहनत करता है उसकी मदद भगवान भी करते है। सीता और गीता की नानी तो नहीं रही, लेकिन मामा-मामी का परिवार आया और सिया की हिम्मत की सराहना करते हुए उसकी खुशी में शामिल हुए। उन्हें भी इन बेटियों पर गर्व हुआ।
आभार :-पुष्पा पाण्डेय
राँची,झारखंड।